दंतेवाड़ा@ पशुपालन और व्यवसाय दोनों ही दंतेवाड़ा जिले में पशु विभाग की कारगुजारियों का खामियाजा इस कदर उठा रहे हैं. कि पशुपालको को अपने पशुओं को गलघोटू और अज्ञात मौसमी बीमारी से बचा पाना भी मुश्किल हो गया है। दरअसल पशु विभाग दंतेवाड़ा में डॉक्टर अजमेरा के हाथों में जैसे ही जिले की कमान आई है। इस विभाग की खस्ताहाल कहानियां जिले में आमचर्चा का विषय बन गया है। ऐसा भी नही है की इस विभाग के कारनामे प्रशासनिक शीर्ष नेतृत्व में बैठे अधिकारियों अनभिज्ञ हो ।

दरअसल गीदम नगर में डेयरी व्यसायी दिनेश शर्मा की डेयरी में बीते एक पखवाड़े में 3 वेहतरीन नस्ल की दुधारू गाय और 2 वयस्क बछिया की मौत हो चुकी है. डेयरी संचालक ने बताया की पशुओं में तेज बुखार के साथ पूरे शरीर मे भारी सूजन जो पैरों से प्रारम्भ होकर गले मे आते ही पशु दम तोड़ देता है पशुओं में जो लक्षण है वो गलघोटू से मिलते है। संचालक ने पशु विभाग पर आरोप लगाया की फर्जी दस्तावेजों में विभाग टीकाकरण कर रहा है ! पिछले बार उनके 8 गाये विभाग के लापरवाही के चलते काल के मुंह मे समा गई .समय से टीकाकरण नही होने की वजह से गंभीर बीमारी के चलते जानवरो की मौत हो रही हैं।

श्री शर्मा ने जानकारी दी कि गीदम पशु चिकित्सक से लेकर इस विभाग के कर्मचारी भी बीमार पशुओ के निरीक्षण में कभी भी समय पर नही पहुँचते है।

क्या होता है गलघोटू रोग- गाय व भैंसों में होने वाला एक बहुत ही घातक तथा छूतदार रोग है चुकी अधिकतर बरसात के मौसम में ऐसी बीमारी होती है यह गोपशुओं में रोग बहुत तेज़ी से फैलकर बड़ी संख्या मे पशुओं को अपनी चपेट में लेकर उनकी मौत का कारण बन जाता हैं जिससे पशु पालकों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है| इस रोग के प्रमुख लक्षणों में तेज़ बुखार, गले में सूजन, सांस लेने में तकलीफ निकालकर सांस लेना तथा सांस लेते समय तेज़ आवाज होमा आदि शामिल है| कईं बार बिना किसी स्पष्ट लक्षणों के ही पशु की अचानक मृत्यु हो जाती है|

उपचार तथा रोकथाम:- इस रोग से ग्रस्त हुए पशु को तुरन्त पशु चिकित्सक को दिखाना चाहिए अन्यथा पशु की मौत हो जाती है| सही समय पर उपचार दिए जाने पर रोग ग्रस्त पशु को बचाया जा सकता है| इस रोग की रोकथाम के लिए रोगनिरोधक टीके लगाए जाते हैं| पहला टीका 3 माह की आयु में दूसरा 9 माह की अवस्था में तथा इसके बाद हर साल यह टीका लगाया जाता हैं| ये टीके पशु चिकित्सा संस्थानों में नि:शुल्क लगाए जाते हैं|

खुराचपका रोग-
– रोग ग्रस्त पशु को 104-106 डि. फारेनहायट तक बुखार हो जाता है| वह खाना-पीना व जुगाली करना बन्द कर देता है|दूध का उत्पादन गिर जाता है| मुंह से लार बहने लगती है तथा मुंह हिलाने पर चप-चप की आवाज़ आती हैं इसी कारण इसे चपका रोग भी कहते है तेज़ बुखार के बाद पशु के मुंह के अंदर,गालों,जीभ,
होंठ तालू व मसूड़ों के अंदर,खुरों के बीच तथा कभी-कभी धनों व आयन पर छाले पड़ जाते हैं| ये छाले फटने के बाद घाव का रूप ले लेते हैं जिससे पशु को असहनीय दर्द होने लगता है| मुंह में घाव व दर्द के कारण पशु खाना-पीना बन्द कर देते हैं जिससे वह बहुत कमज़ोर हो जाता है|खुरों में दर्द के कारण पशु लंगड़ा चलने लगता है| गर्भवती मादा में कई बार गर्भपात भी हो जाता है| नवजात बाच्छे/बच्छियां बिना किसी लक्षण दिखाए मर जाते है| लापरवाही होने पर पशु के खुरों में कीड़े पड़ जाते हैं तथा कई बार खुरों के कवच भी निकल जाते हैं| हालांकि व्यस्क पशु में मृत्यु दर कम (लगभग 10%) है लेकिन इस रोग से पशु पालक को आर्थिक हानि बहुत ज्यादा उठानी पड़ती है| दूध देने वाले पशुओं में दूध के उत्पादन में कमी आ जाती है| ठीक हुए पशुओं का शरीर खुरदरा तथा उनमें कभी कभी हांफना रोग हो जाता है| बैलों में भारी काम करने की क्षमता खत्म हो जाती हैं |

उपचार:- इस रोग का कोई निश्चित उपचार नहीं है लिकिन बीमारी की गम्भीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है| रोगी पशु में सेकैन्डरी संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंटीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं| मुंह व खुरों के घावों को फिटकरी या पोटास के पानी से धोते हैं| मुंह में बोरो-गिलिसरीन तथा खुरों में किसी एंटीसेप्टिक लोशन या क्रीम का प्रयोग किया जा सकता है|

जब विभाग द्वारा इन सब बीमारियों की रोकथाम के लिए समय पर टीकाकरण की गाइड लाइन बनी है। तो विभाग को ध्यान देना चाहिए। ताकि पशुओ को असमय इन गंभीर बीमारियों की चपेट से बचाया जा सके।

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